async='async' crossorigin='anonymous' src='https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-6267723828905762'/> MASLAK E ALAHAZRAT ZINDABAAD: मुसलमान होने के लिये क्या ज़रूरी है

Saturday, November 6, 2021

मुसलमान होने के लिये क्या ज़रूरी है

*क़ुरआ़नी आयात से ईमान की तमहीद....!!!*
अस्सलामु अ़लाइकुम व रहमतुल्लाही व बरकातुहु.!!

*मोमिन होने को क्या ज़रूरी है..!!*
आइय्ये क़ुरआ़न ए करीम और हदिसे क़ुदसी से मालूम करते है,
क़ुरआ़न शरीफ में रब तआ़ला इरशाद फरमाता है।

إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ شَاهِدًا وَمُبَشِّرًا وَنَذِيرًا  لِتُؤْمِنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَتُعَزِّرُوهُ وَتُوَقِّرُوهُ وَتُسَبِّحُوهُ بُكْرَةً وَّأَصِيلًا۞
*तर्जुमा:- बेशक हमने तुम्हे भेजा हाज़िरो नाज़िर और ख़ुशी और डर सुनाता ताके ऐ लोगों तुम अल्लाह और उसके रसूलﷺ पर ईमान लाओ और रसूलﷺ की ताअज़ीम व तौक़ीर करो और सुबह व शाम अल्लाह की पाकी बोलो।*
(पारा 26 सूरेह फतेह आयत 8-9)

अब हदिसे क़ुदसी मुलाहिज़ा कीजिए,
बुखारी शरीफ में हज़रत अनस बिन मालिक (रदि अल्लाहू तआ़ला अन्हु) से रिवायत है कि रसूल अल्लाहﷺ ने फरमाया,

لَايُؤْمِنُ اَحَدُكُم حَتّٰی اَکُوْنَ اَحَبَّ اِلَیْهِ مِنْ وَّالِدِهٖ ووَلَدِهٖ وَالنَّاسِ أَجمَعِيْنَ۞
*तर्जुमा व मफहूम:- तुम में से कोई मुसलमान ना होगा जब तक मैंﷺ उसे उसके मां बाप औलाद और सब आदमियों से ज़्यादा प्यारा ना हो जाओ।*

तो मुसलमानों, ईमान के हक़िक़ी वाक़ई होने को दो बातें ज़रूर है..!!
1:- सच्चे दिल से सरकारﷺ की ताअज़ीम व तौक़ीर करना।
2:- तमाम जहान में सबसे ज़्यादा सरकारﷺ से मुहब्बत करना।
अब आइय्यए..!!
क़ुरआन शरीफ में रब तआ़ला इरशाद फरमाता है।

آلمّٓ  أَحَسِبَ النَّاسُ أَنْ يُتْرَكُوا أَنْ يَقُولُوا آَمَنَّا وَهُمْ لَا يُفْتَنُونَ۞
*तर्जुमा:- क्या लोग इस घमंड में है कि इतनी बात पर छोड़ दिए जाएंगे कि हम ईमान लाए और उनकी आज़माइश ना होगी* (पारा 20 सुरह अल-अनकबूत)

ये आयत मुसलमानों को होशयार कर रही है के देखो कलमा गोई और ज़बानी ईद्दाऐ मुसलमानी पर तुम्हारा छुटकारा ना होगा,
हां हां..!! सुनते हो आज़माए जाओगे, आज़माइश में पूरे निकले तो मुसलमान ठहरोगे, हर शह की आज़माइश में यही देखा जाता है की जो बाते उसके हक़िक़ी वाक़ई होने को दरकार है वो उसमे है या नहीं अभी क़ुरआन व हदीस इरशाद फरमा चुके के.!!

ईमान के हकीकी वाकई होने को दो बातें ज़रूर है.
1) मुहम्मदुर्रसूलूल्लाहﷺ की ताअज़ीम
2) मुहम्मदुर्रसूलूल्लाहﷺ की मुहब्बत को तमाम जहान पर तक़दीम..!!

तो उसकी आज़माइश का ये सरीह तरीक़ा है के तुम को जिन लोगों से जैसी ही ताअज़ीम कितनी ही अक़िदत कितनी ही दोस्ती कैसी ही मुहब्बत का इलाक़ा हो.!!!

 जैसे तुम्हारे बाप, तुम्हारे उस्ताद, तुम्हारे पीर, तुम्हारी औलाद, तुम्हारे भाई, तुम्हारे अहबाब, तुम्हारे बड़े (बिरादरी के), तुम्हारे असहाब, तुम्हारे मौलवी, तुम्हारे हाफ़िज़, तुम्हारे मुफ्ती, तुम्हारे वाईज़ वगेरहा वगेरहा कसे बाशद,
 जब वो मुहम्मदुर्रसूलूल्लाहﷺ की शाने अक़दस में गुस्ताखी करे असलन (होना तो ये चाहिए की) तुम्हारे क़ल्ब में उनकी अज़मत उनकी मुहब्बत का नामो निशान ना रहे, फोरन उनसे अलग हो जाओ, दूध से मक्खी की तरह निकाल कर फेकदो, उनकी सूरत, उनके नाम से नफरत खाओ फिर ना तुम अपने रिश्ते, इलाके, दोस्ती, उल्फत का पास करो, ना उसकी मोलवियत, मश्खियत, बुज़ुर्गी, फज़ीलत को खतरे में लाओ.!!
के आखिर ये जो कुछ था मुहम्मदुर्रसूलूल्लाहﷺ ही की गुलामी की बिना पर था जब ये शख्स उन्ही की शान में गुस्ताख हुआ, तो फिर हमे उससे क्या इलाका रहा, उसके जुब्बे इमामे पर क्या जाए, क्या बोहतरे यहूदी जुब्बे नहीं पहनते?, क्या इमामे नहीं बांधते? उसके नाम, इ़ल्म व ज़ाहिरी फज़्ल को लेकर क्या करे, क्या बोहतरे पादरी बा कसरत फलसफी बड़े बड़े उलूम व फुनून नहीं जानते,
और अगर ये नहीं बल्कि मुहम्मदुर्रसूलूल्लाहﷺ के मुक़ाबिले तुमने उसकी बात बनानी चाही, उसने हुज़ूरﷺ से गुस्ताखी की, और तुमने उससे दोस्ती निभाई, या उसे हर बुरे से बदतर बुरा ना जाना, या उसे  बुरा कहने पर बुरा माना, या इसी क़दर के तुमने इस अमर् में बे परवाही मनाही, या तुम्हारे दिल में उसकी तरफ से सख्त नफरत ना आई,
तो लिल्लाह तुम ही इंसाफ कर लो के तुम ईमान के इम्तिहान में कहां पास हुए।
 कुरआन व हदीस ने जिस पर हुसूले ईमान का मदार रखा था उससे कितनी दूर निकल गए,
1:- मुसलमानों क्या जिसके दिल में  मुहम्मदुर्रसूलूल्लाहﷺ की ताअज़ीम होगी वो उनके बदगो की वक़अत कर सकेगा अगरचे उसका पीर या उस्ताद या पिदर (बाप) ही क्यों ना हो,
2:- क्या जिसे मुहम्मदुर्रसूलूल्लाहﷺ तमाम जहान से ज़्यादा प्यारे हो वो उनके गुस्ताख से फोरन सख्त शदीद नफरत ना करेगा? अगर्चे उसका दोस्त, या बिरादर, या पीसर (बेटा) ही क्यों ना हो,
लिल्लाह अपने हाल पर रहम करो अपने रब की बात सुनो फरमाता है।

يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُوٓاْ ءَابَآءَكُمْ وَإِخْوَٰنَكُمْ أَوْلِيَآءَ إِنِ ٱسْتَحَبُّواْ ٱلْكُفْرَ عَلَی الْاِیْمَانِ ۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمْ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ۞ پارہ 10 سورہ توبہ آیت 22
*तर्जुमा:- ऐ ईमान वालो अपने बाप और भाइयों से दोस्ती ना करो अगर वो ईमान पर कुफ्र पसंद करें और जो तुम में उन से दोस्ती करेगा तो यही लोग ज़ालिम हैं।* (पारा 10 सुरेह तौबा आयत 22)
(तमहीद के ईमान) आलाहज़रत इमाम अहमद रज़ा खान RadiAlllahu taAla Anhu
(पोस्ट सैय्यद इ़रफ़ान समर)

1 comment:

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